Ads Area

आखिर क्यों हनुमान जी ने निगला भगवान शिव का प्रलयंकारी त्रिशूल !


शत्रुघ्न जी के प्रहार से घायल शिव भक्त वीरमणि रक्षा के लिए भगवान शिव को पुकाराने लगे और तब भगवान शिव की आज्ञा से वीरभद्र ने युद्ध भूमि में आकर त्राहि त्राहि मचा दिया, पर जब वीरभद्र द्वारा भरत जी के पुत्र पुष्कल का संहार हुआ तो हनुमान जी अत्यंत ही क्रोध से तमतमा उठे। फिर जब हनुमान जी वीरभद्र पर भारी परने लगे तो क्रोधित होकर भगवान शिव स्वयं युद्ध भूमि में आ गए और अत्यंत ही क्रोध में आकर भगवान शिव ने अपने प्रलयंकारी त्रिशूल से हनुमान जी पर प्रहार कर दिया। पर वे शायद ये भूल गए की हनुमान जी श्रीराम के प्रिय और उनके ही रूद्र अवतार है और तभी हनुमान जी ने अपना विकराल मुख खोलकर जो किया उसे भगवान शिव भी आश्चर्य से देखते ही रह गए। 


दरअसल देवपुर के राजा वीरमणि के राज्य में अचानक एक दिन बहुत ही अफरा तफरी मच गई, चारो ओर लोग इधर-उधर भाग रहे थे यहाँ तक की आकाश में भी अँधेरा छा गया था पर अभी तक राजा वीरमणि को कुछ समझ ही नहीं आ रहा था की ये सब क्या हो रहा है। 


राजा ने तुरंत एक आपातकालीन राज्य सभा का आयोजन किया, पर राजा वीरमणि के तरह ही किसी को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था की ये सब क्या और क्यों हो रहा है। 


असल में हुआ ये था की राजा वीरमणि के बरे पुत्र रुक्मांग जो अत्यंत ही वीर योद्धा था उसने श्रीराम के अश्वमेघ यज्ञ के अश्व को अपने राज्य में विचरते देख उसे बंदी बना कर अपने भवन में बांध दिया। और जब अयोध्या की सेना सहित शत्रुघ्न जी को इस बात का पता चला की यज्ञ का अश्व लापता हो गया है तो उन्होंने अपने सेना को आदेश दिया की देवपुर राज्य का चप्पा चप्पा छान मारो। 


इधर राजा वीरमणि को भी पता चला की अयोध्या के अश्वमेघ यज्ञ का अश्व कही गुम हो गया है तो उन्होंने अपने सेनापति को आदेश दिया की यज्ञ के अश्व को कही से भी ढूंढा जाये। पर तभी वहा युवराज रुक्मांग आ गए और उन्होंने बताया की यज्ञ का अश्व उन्होंने अपने भवन में बांध के रखा हुआ है और वे अयोध्या की अधीनता स्वीकार नहीं करना चाहते।

राजा वीरमणि ने उन्हें बहुत समझाया पर रुक्मांग ने उनको कहा की हम वीर है और स्वतंत्रता हमारा अधिकार है। और फिर सबने श्रीराम की सेना से युद्ध करने का निश्चय कर लिया। 


उधर जब शत्रुघ्न जी को यह पता चला की यज्ञ का अश्व को राजा वीरमणि के पुत्र रुक्मांग ने ही बंदी बनाया है तो शत्रुघ्न जी क्रोध का ठिकाना नहीं रहा और उन्होंने तुरंत राजा वीरमणि पर आक्रमण का आदेश दे दिया पर तभी हनुमान जी ने शत्रुघ्न जी से कहा की हमें राजा वीरमणि के राज्य पर सोच समझ कर आक्रमण करना चाहिए। क्योकि उन्हें जीतना महाकाल को जितने के समान होगा। हनुमान जी की ये बात सुन शत्रुघ्न जी, भारत जी के पुत्र पुष्कल सहित सभी युद्धा आश्चर्य से सन्न हो गए। 


असल में वीरमणि देवपुर के राजा से अधिक भगवान शिव के परम भक्त थे उन्होंने कई पहले ही शिप्रा नदी के समीप महाकालेश्वर मंदिर में भगवान शिव की अत्यंत ही कठोर तपस्या की। राजा वीरमणि की लंबी और निष्ठापूर्ण तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न हुए और से कहा। "हे पुत्र वीरमणि! मैं तुम्हारी भक्ति और समर्पण से अत्यंत ही प्रसन्न हूँ। तुम्हें क्या चाहिए? मुझसे जो वरदान माँगना है, माँग लो।"

इसपर राजा वीरमणि ने विनम्रता से कहा, हे प्रभु मुझे कुछ नहीं चाहिए पर मुझसे मेरी प्रजा का दुख देखा नहीं जाता। आप बस मेरी प्रजा की समृद्धि और सुरक्षा का ही वरदान दे। 

इसपर भगवन शिव ने कहा "पुत्र वीरमणि मैं स्वयं तुम्हारे राज्य की रक्षा करूँगा, अब तुम चिंता त्यागकर अपने राजमहल जाओ। 

तभी से राजा वीरमणि का राज्य अजेय हो गया जब भी कोई शत्रु देवपुर पर आक्रमण करता तो भगवान शिव की आज्ञा से शिवगण ही उसे परास्त कर देते। और इसी कारन से युवराज रुक्मांग ने श्रीराम के क्रोध से भयभीत हुए बिना यज्ञ के अश्व को बंदी बना लिया। 

उधर हनुमान जी के समझाने पर शत्रुघ्न जी ने कहा हम पराजय के भय से कर्तव्य से मुख नहीं मोर सकते और अयोध्या की विशाल देना ने देवपुर पर आक्रमण कर दिया।

हनुमान जी को भगवान शिव द्वारा राजा वीरमणि को मिले वरदान का ज्ञान था। इसीलिए उन्होंने युद्ध से पहले संधि का अवसर देना उचित समझा। वे राजा वीरमणि के समक्ष पहुंचे और गंभीर स्वर में बोले, "हे महाराज! आपके पुत्र ने प्रभु राम के अश्व को रोककर बहुत बरी भूल की है। हम श्री राम की ओर से आपको संधि का अवसर देते हैं, आप यज्ञ का अश्व लौटा कर श्रीराम से मित्रता कर लीजिये। 

परंतु वीरमणि ने एक क्षत्रिय होने के नाते इसे अपने गौरव के विरुद्ध बताकर इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और फिर शुरू हुआ वो महायुद्ध जिसका आप सभी को इन्तजार था। 

दोनों सेनाओं के आपने सामने आते ही चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गया। हनुमान जी ने 'जय श्री राम' का नारा लगाते हुए अपने असीम बल से वीरमणि की सेना को तिनके की भांति उराना शुरू कर दिया। इधर शत्रुघ्न जी और भरत जी के पुत्र पुष्कल ने बाणों से भीषण आक्रमण कर चारो तरफ हाहाकार मचा दिया। जब वीरमणि के पुत्र रुक्मांग ने पुष्कल को रोकने की कोशिश की तो पुष्कल ने कुछ ही देर में रुक्मांग को घायल कर दिया। वही वीरमणि भी शत्रुघ्न जी से नहीं जीत पा रहे थे और जब वीरमणि को लगा की वे अब युद्ध हार जायेंगे तो उन्होंने कुछ ऐसा किया की अयोध्या की सेना थर थर कांपने लगी। 

असल में उन्होंने जैसे ही अपने आराध्य भगवान शिव को अपनी रक्षा के लिए पुकारा तो भगवान शिव का ध्यान भंग हो गया! उन्होंने क्रोध में अपनी एक जटा उखारी और पर्वत पर दे मारी, जिससे एक भयंकर विस्फोट के साथ प्रकट हुए, वीरभद्र!

महादेव ने गर्जना करते हुए वीरभद्र को आदेश दिया, "वीरभद्र! मेरे भक्त वीरमणि और उसका राज्य संकट में है! मेरे भक्त पर आक्रमण करने वालों का संहार करके ही लौटना!"

प्रभु की आज्ञा पाकर वीरभद्र युद्धभूमि में जा पहुंचे और अपनी छह भुजाओं में प्रलयंकारी शस्त्रों के साथ शत्रुघ्न जी की सेना पर काल बनकर टूट परे। वीरभद्र की एक दहार से ही श्रीराम की सेना भयभीत होकर भागने लगी। यह देख भरत के पुत्र पुष्कल, वीरभद्र को रोकने के लिए उनके बीच में आ गए, पर तभी एक भयंकर गर्जना के साथ वीरभद्र ने पुष्कल का सर उनके धर से अलग कर दिया!

इसपर शत्रुघ्न जी क्रोध में आकर वीरभद्र से युद्ध करने लगे, पर अंत में वीरभद्र के प्रहार से वे भी मूर्छित हो गए!

शत्रुघ्नजी जी को मूर्छित और पुष्कल को मृत देख हनुमान जी का शांत और सौम्य मुखमंडल प्रलयंकारी तेज से धधक उठा! वे क्रोध से गरजते हुए अपना रूप अत्यंत ही विकराल करने लगे। इसे देख वीरभद्र भी अपना आकर बढ़ाते हुए दहारने लगे। अपनी गदा लेकर हनुमान जी सीधा वीरभद्र के सामने पहुंचे और क्रोध से गरजते हुए बोले, "हे वीरभद्र! तुमने प्रभु श्रीराम के कार्य में रुकावट पैदा करने का साहस कैसे किया? मेरे प्रभु के भतीजे पुष्कल का वध करके तुमने अपनी मृत्यु को आमंत्रित किया है!"

इसपर वीरभद्र ने कहा, "मैं अपने प्रभु के आदेश का पालन कर रहा हूँ, और उनके भक्त पर आए संकट को दूर करना ही मेरा धर्म है!"

और फिर शुरू हुआ दो महाशक्तियों का ऐसा टकराव, जिसे देख तीनों लोकों में हाहाकार मच गया! दोनों एक दूसरे पर भारी पर रहे थे और जब कई दिनों तक चले इस घमासान युद्ध का कोई परिणाम नहीं निकला, तब युद्धभूमि में स्वयं भगवान शिव प्रकट हुए! उन्हें देख सब स्थिर हो गए!

भगवान शिव ने हनुमान से कहा, "हनुमान! तुम्हारे बल और प्रभु भक्ति का कोई तोर नहीं है। पर जिस प्रकार तुम अपने कार्य से बंधे हो, उसी प्रकार मैं भी अपने भक्त को दिए हुए वचन से बंधा हुआ हूँ। अब तुम्हें मुझे पराजित करके ही यह राज्य मिलेगा!"

और अब शुरू हुआ हनुमान जी तथा भगवान शिव के बीच एक महाप्रलयंकारी युद्ध, पर इस युद्ध का भी कोई निष्कर्ष नहीं निकल रहा था, तभी राजा वीरमणि ने भगवान शिव को हनुमान जी पर भीषण प्रहार करने का आग्रह किया और फिर भगवान क्रोध से गर्जना करते हुए अपना भयंकर त्रिशूल हनुमान जी पर चला दिया। यह देख हनुमान जी भी गर्जना करते हुए अपना शरीर और विशाल किया तथा अपने मुख को खोल भगवान शिव के त्रिशूल को तिनके की भांति निगल गए। 

यह देख सब आश्चर्चकित हो गए और भगवान शिव ने हनुमान जी से अपना त्रिशूल माँगा। इसपर हनुमान जी ने जब उन्हें वो त्रिशूल जब अपने मुख से निकाल कर दिया तो हनुमान जी के पराक्रम से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें वरदान मांगने को कहा। 

इसपर हनुमान जी ने पुष्कल को जीवनदान और शत्रुघ्न की मूर्छा से मुक्ति का वरदान मांग लिया। और जैसे ही शत्रुघ्न जी शत्रुघ्न जी तथा पुष्कल जी स्वस्थ हुए युद्ध पुनह आरम्भ हो गया। अब शत्रुघ्न जी भगवान शिव से युद्ध करने लगे और जब शत्रुघ्न जी को लगा की वे भगवान शिव को नहीं जीत सकते तो उन्होंने तुरंत भगवान राम का स्मरण किया और तभी युद्ध भूमि में प्रगट हुए श्रीराम!

श्री राम को देखते ही भगवान शिव ने उन्हें प्रणाम किया और उनके शरण में चले गए और अपने भक्त वीरमणि से कहा - ये तो मेरे भी स्वामी है, युद्ध की भावना त्यागकर तुम इनके शरण में जाओ। वीरमणि ने यज्ञ का अश्व श्री राम को लौटाने के साथ-साथ अपना राज्य भी उन्हीं को सौंप दिया और इस तरह यह महायुद्ध समाप्त हुआ।

Post a Comment

0 Comments

Copyright (c) 2024 XYZ AI All Rights Reserved