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श्रीराम द्वारा भगवान शिव के धनुष को तोड़ने पर परशुराम जी का क्रोध !



धर्म की स्थापना के लिए अवतरित हुए श्रीराम और परशुराम जी दोनों ही भगवान विष्णु के ही अवतार होने के बाद भी ऐसा क्या हुआ की दोनों आमने सामने आ गए। 

दरअसल त्रेतायुग के समय में जब जनक जी के दरबार में आये कोई भी राजा शिव के उस शक्तिशाली धनुष को हिला भी नहीं पाए और इससे दुखी राजा जनक ने जब धरती को वीरो से विहीन बोल दिया। और जब लक्ष्मण जी के क्रोध के बाद जब श्रीराम धनुष की ओर आगे बढे तो अचानक वातावरण काला पर गया और तभी एक तीव्र ध्वनि के साथ श्रीराम ने शिव के धनुष को तोर डाला। धनुष के टूटने की ध्वनि इतनी तीव्र थी को तीनो लोक काप उठे, सभी देवी देवता इस बात से खुश थे पर परशुराम जी ने जैसे ही ये ध्वनि सुनी उनका सोया हुआ क्रोध जाग उठा। उन्हें ये समझते देर न लगी की उनके गुरू भगवान शिव के धनुष को किसी ने तोर दिया है। 


वे तुरंत ही जनक जी के दरबार में पहुंचे। उन्हें देखते ही वहां उपस्तिथ सभी राजा डर से थर थर कपने लगे। उनकी आँखों से बरसती आग को देख जनकजी के शब्द गले में ही अटक गए। परशुराम जी ने मेघ जैसी गर्जना करते हुए कहा, "जनक! शीघ्र बता, मेरे आराध्य महादेव के इस धनुष को किसने खंडित किया है? यदि तूने सत्य नहीं बताया, तो आज मैं तेरा और तेरे इस पूरे राज्य का अंत कर दूंगा!"  यह सुन पूरी सभा सन्न थी। 


तभी उस सन्नाटे को चीरते हुए एक व्यंग्य भरी हंसी गूंजी। यह कोई और नहीं, बल्कि लक्ष्मण जी थे। लक्ष्मण जी ने मुस्कुराते हुए कहा, "मुनिवर! बचपन में हमने खेल-खेल में ऐसे न जाने कितने ही धनुष तोरे हैं, तब तो आपने कभी ऐसा क्रोध नहीं किया? फिर इस पुराने और जीर्ण धनुष पर इतनी ममता क्यों?"  


लक्ष्मण जी के इन वचनों को सुन परशुराम जी ने फरसा ऊपर उठाया और बोले, "रे नृप बालक! काल के वश होकर तू अपनी जुबान पर लगाम नहीं लगा रहा। यह त्रिपुरारी का धनुष है, कोई साधारण धनुही नहीं! लगता है तुझे अपने प्राण प्यारे नहीं हैं!"  वाद-विवाद बढ़ने लगा, वातावरण इतना तप्त हो गया कि लगा अभी युद्ध छिर जाएगा। 


तभी श्रीराम आगे आए और हाथ जोरकर विनम्रता से कहा, "हे नाथ! शंभु के धनुष को तोरने वाला आपका ही कोई दास होगा। आप व्यर्थ ही क्रोधित हो रहे हैं।"  श्रीराम की वह विनम्रता और उनका तेज देखकर परशुराम जी ठिठक गए। उनके भीतर का ब्रह्मत्व जाग उठा। अपनी शंका को मिटाने के लिए उन्होंने श्रीराम को भगवान विष्णु का 'शारंग' धनुष दिया और उस पर प्रत्यंचा चढ़ाने की चुनौती दी।  जैसे ही श्रीराम ने उस दिव्य धनुष को स्पर्श किया, उसकी प्रत्यंचा स्वतह ही चढ़ गई!


यह देखते ही परशुराम जी का भ्रम टूट गया। उन्होंने श्रीराम को प्रणाम किया और तपस्या के लिए महेन्द्रगिरि पर्वत की ओर चल दिए। और इस वीडियो में देखिये की जब कोई भी यम-दूत अयोध्या में प्रवेश नहीं कर पाया और यमराज के खुद अयोध्या के द्वार पर आने से जब हनुमान जी ने उन्हें प्रवेश की अनुमति नहीं दी तो इससे क्रोधित यमराज ने ऐसा क्या किया की हनुमान जी अपने विकराल रूप में आकर क्रोध से गर्जना करने लगे।


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